गैरों से कैसा गिला,
जब अपनों से ही सहारा न मिला,
दिल की बगिया,सूनी थी,सूनी ही रही,
आँखें बरसतीं रहीं,पर लब खामोश रहे,
तुमसे कहना तो बहुत कुछ था,
हम अपनी ही उलझनों में उलझे रहे,
और चाहते हुए भी कुछ न तुमसे कह सके|
हम अपनी ही उलझनों में उलझे रहे,
और चाहते हुए भी कुछ न तुमसे कह सके|