कैसी ज़िन्दगी है इंसान की,
कभी रोते-रोते हँसता है वो,
तो कभी हँसते-हँसते आ जाते हैं आंसू,
कभी चिलचिलाती धूप भी देती है सुकून,
और चुभने लगती है,शीतल चांदनी,
किसी की मुस्कराहट,खुश नहीं कर पाती,
अपनी ही साँसों से ऊबने लगता है,इंसान
और फिर अपनी ही,
निराशाओं और तन्हाइयों में खो जाता है,इंसान|
कभी रोते-रोते हँसता है वो,
तो कभी हँसते-हँसते आ जाते हैं आंसू,
कभी चिलचिलाती धूप भी देती है सुकून,
और चुभने लगती है,शीतल चांदनी,
किसी की मुस्कराहट,खुश नहीं कर पाती,
अपनी ही साँसों से ऊबने लगता है,इंसान
और फिर अपनी ही,
निराशाओं और तन्हाइयों में खो जाता है,इंसान|