न वो किसी को समझ सकी,
न कोई उसे समझ सका,
जैसे वह सबसे दूर रही,
वैसे ही सब उससे दूर रहे,
सूरज,चाँद और तारों से भी,
उसकी जैसे कोई पहचान न थी,
ऐसे लगता था,
वो तो,बहती हवा से भी अनजान ही थी,
कैसी बदनसीबी थी उसकी,
इंसान होकर भी,
उसका मन कितना कठोर हो चुका था,
प्रेम का अर्थ,उसे कब का बिसर चुका था|