बचपन तो छूट गया,पर
मन अब भी भटक रहा उन गलियों में,
जहाँ खेला करते थे,हम
गिल्ली-डंडा खेला,पकडन-पकडाई
लंगरी-टांग और छुपन-छुपाई भी,
अपने संगी-साथियों के संग,
कैसा वक़्त था वो,न रहता था
अपना होश और न घर जाने का,
बड़ा मस्त और अल्हड़ था ,
वो बचपन जो छूट गया .......
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